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Nazm

Nazm is poem that is similar to English and Hindi Poems. Nazm is the second most prominent gener of Urdu Poetry. Poems Have couplets one after other, but in Nazm it is not necessary to have paragraphs of two sentences or more.

Nazm is a more realistic mode of expression, it is logically evolving poem where each individual verse serves the need of concept or theme of the poem. Though Nazm is traditionally written in rhymed verse but also written in unrhymed verse or in free verse.

Nazm can be very diverse and the writer has a lot of flexibility when writing them. There are many different types and forms of Nazm in Urdu.

Nazms of Javed Akhtar

वैसे जावेद अख्तर साहब को कौन नहीं जनता, भारतीय फिल्म जगत में उनका बहुत बड़ा योगदान रहा है| उन्होंने अपने कार्यकाल में कई फिल्मे, फिल्मो के संवाद, गाने लिखे है और अभी भी लिख रहे है|

जावेद साहब जितने बड़े रचनाकार है उतना ही उम्दा उनका व्यक्तिमत्व है| लेखन जगत में जावेद साहब का एक बेहद बड़ा रुतबा है, उनके लिखे हुए गाने, ग़ज़ल, नज्मे लोगो को जुबानी याद है|

ऐसे उनके लिखे हुए चुनिन्दा नज्मे मैंने यहाँ आपके लिए पोस्ट किये| ये नज्मे जावेद साहब की किताब “तरकश” से लिए गए है| निचे दिए गए comment box में इस पोस्ट के बारे में अपना सुझाव जरुर दे ताकि मै ऐसे ही और रचनाओ और रचनाकारों से आपको रुबरु करवा सकू|

Shayari and nazm by javed akhtar

१) मेरा आँगन मेरा पेड़

मेरा आँगन
कितना कुशादा कितना बड़ा था
जिस में
मेरे सारे खेल
समा जाते थे
और आँगन के आगे था वो पेड़ कि जो मुझ से काफ़ी ऊँचा था
लेकिन
मुझ को इस का यक़ीं था
जब मैं बड़ा हो जाऊँगा
इस पेड़ की फुंगी भी छू लूँगा
बरसों ब’अद
मैं घर लौटा हूँ
देख रहा हूँ
ये आँगन
कितना छोटा है
पेड़ मगर पहले से भी थोड़ा ऊँचा है


२) एक मोहरे का सफ़र

जब वो कम-उम्र ही था
उसने ये जान लिया था कि अगर जीना है
बड़ी चालाकी से जीना होगा
आँख की आख़िरी हद तक है बिसात-ए-हस्ती
और वो मामूली-सा इक मोहरा है
एक इक ख़ाना बहुत सोच के चलना होगा
बाज़ी आसान नहीं थी उसकी
दूर तक चारों तरफ़ फैले थे
मोहरे
जल्लाद
निहायत ही सफ़्फ़ाक
सख़्त बे-रहम
बहुत ही चालाक
अपने क़ब्ज़े में लिए
पूरी बिसात
उसके हिस्से में फ़क़त मात लिए
वो जिधर जाता
उसे मिलता था
हर नया ख़ाना नयी घात लिए
वो मगर बचता रहा
चलता रहा
एक घर
दूसरा घर
तीसरा घर
पास आया कभी औरों के
कभी दूर हुआ
वो मगर बचता रहा
चलता रहा
गो कि मामूली-सा मुहरा था मगर जीत गया
यूँ वो इक रोज़ बड़ा मुहरा बना
अब वो महफ़ूज़ है इक ख़ाने में
इतना महफ़ूज़ है इक ख़ाने में
इतना महफ़ूज़ कि दुश्मन तो अलग
दोस्त भी पास नहीं आ सकते
उसके इक हाथ में है जीत उसकी
दूसरे हाथ में तन्हाई है


३) उलझन

करोड़ों चेहरे
और उन के पीछे
करोड़ों चेहरे
ये रास्ते हैं कि भिड़ के छत्ते
ज़मीन जिस्मों से ढक गई है
क़दम तो क्या तिल भी धरने की अब जगह नहीं है
ये देखता हूँ तो सोचता हूँ
कि अब जहाँ हूँ
वहीं सिमट के खड़ा रहूँ मैं
मगर करूँ क्या
कि जानता हूँ
कि रुक गया तो
जो भीड़ पीछे से आ रही है
वो मुझ को पैरों तले कुचल देगी पीस देगी
तो अब जो चलता हूँ मैं
तो ख़ुद मेरे अपने पैरों में आ रहा है
किसी का सीना
किसी का बाज़ू
किसी का चेहरा
चलूँ
तो औरों पे ज़ुल्म ढाऊँ
रुकूँ
तो औरों के ज़ुल्म झेलूँ
ज़मीर
तुझ को तो नाज़ है अपनी मुंसिफ़ी पर
ज़रा सुनूँ तो
कि आज क्या तेरा फ़ैसला है


४) जहन्नुमी

मैं अक्सर सोचता हूँ
ज़ेहन की तारीक गलियों में
दहकता और पिघलता
धीरे धीरे आगे बढ़ता
ग़म का ये लावा
अगर चाहूँ
तो रुक सकता है
मेरे दिल की कच्ची खाल पर रक्खा ये अँगारा
अगर चाहूँ
तो बुझ सकता है
लेकिन
फिर ख़याल आता है
मेरे सारे रिश्तों में
पड़ी सारी दराड़ों से
गुज़र के आने वाली बर्फ़ से ठंडी हवा
और मेरी हर पहचान पर सर्दी का ये मौसम
कहीं ऐसा न हो
इस जिस्म को इस रूह को ही मुंजमिद कर दे
मैं अक्सर सोचता हूँ
ज़ेहन की तारीक गलियों में
दहकता और पिघलता
धीरे धीरे आगे बढ़ता
ग़म का ये लावा
अज़िय्यत है
मगर फिर भी ग़नीमत है
इसी से रूह में गर्मी
बदन में ये हरारत है
ये ग़म मेरी ज़रूरत है
मैं अपने ग़म से ज़िंदा हूँ


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५) बीमार की रात

दर्द बे-रहम है
जल्लाद है दर्द
दर्द कुछ कहता नहीं
सुनता नहीं
दर्द बस होता है
दर्द का मारा हुआ
रौंदा हुआ
जिस्म तो अब हार गया
रूह ज़िद्दी है
लड़े जाती है
हाँफती
काँपती
घबराई हुई
दर्द के ज़ोर से
थर्राई हुई
जिस्म से लिपटी है
कहती है
नहीं छोड़ूँगी
मौत
चौखट पे खड़ी है कब से
सब्र से देख रही है उस को
आज की रात
न जाने क्या हो


६) मुअम्मा

हम दोनों जो हर्फ़ थे
हम इक रोज़ मिले
इक लफ़्ज़ बना
और हम ने इक मअ’नी पाए
फिर जाने क्या हम पर गुज़री
और अब यूँ है
तुम अब हर्फ़ हो
इक ख़ाने में
में इक हर्फ़ हूँ
इक ख़ाने में
बीच में
कितने लम्हों के ख़ाने ख़ाली हैं
फिर से कोई लफ़्ज़ बने
और हम दोनों इक मअ’नी पाएँ
ऐसा हो सकता है
लेकिन सोचना होगा
इन ख़ाली ख़ानों में हम को भरना क्या है


७) हिज्र

कोई शेर कहूँ
या दुनिया के किसी मोजुं पर
में कोई नया मजमून पढूं
या कोई अनोखी बात सुनूँ
कोई बात
जो हंसानेवाली हो
कोई फिकरा
जो दिलचस्प लगे
या कोई ख्याल अछूता सा
या कहीं कोई मिले
कोई मंजर
जो हैरां कर दे
कोई लम्हा
जो दिल को छू जाये
मै अपने जहन के गोशों मै
इन सबको सँभाल के रखता हूँ
और सोचता हूँ
जब मिलोगे
तुमको सुनाउगां


८) दुश्वारी

मैं भूल जाऊँ तुम्हें अब यही मुनासिब है
मगर भुलाना भी चाहूँ तो किस तरह भूलूँ
कि तुम तो फिर भी हक़ीक़त हो कोई ख़्वाब नहीं
यहाँ तो दिल का ये आलम है क्या कहूँ
कमबख़्त !
भुला न पाया ये वो सिलसिला जो था ही नहीं
वो इक ख़याल
जो आवाज़ तक गया ही नहीं
वो एक बात
जो मैं कह नहीं सका तुमसे
वो एक रब्त
जो हममें कभी रहा ही नहीं
मुझे है याद वो सब
जो कभी हुआ ही नहीं


९) आसार-ए-कदीमा

एक पत्थर की अधूरी मूरत
चंद तांबें के पुराने सिक्के
काली चांदी के अजब जेवर
और कई कांसे के टूटे बर्तन
एक सहरा में मिले
जेरें-जमी
लोग कहते है की सदियों पहले
आज सहारा है जहां
वहीँ एक शहर हुआ करता था
और मुझको ये ख्याल आता है
किसी तकरीब
किसी महफ़िल में
सामना तुझसे मेरा आज भी हो जाता है
एक लम्हे को
बस एक पल के लिए
जिस्म की आंच
उचटती-सी नजर
सुर्ख बिंदिया की दमक
सरसराहट तेरी मलबूस की
बालों की महक
बेख़याली में कभी
लम्स का नन्हा फूल
और फिर दूर तक वही सहरा
वही सहरा की जहां
कभी एक शहर हुआ करता था


१०) ग़म बिकते है

ग़म बिकते हैं
बाजारों में
ग़म काफी महंगे बिकते हैं
लहजे की दूकान अगर चल जाये तो
जज्बे के गाहक
छोटे बड़े हर ग़म के खिलोने
मुंह मांगी कीमत पे खरीदें
मेने हमेशा अपने ग़म अच्छे दामों बेचे हैं
लेकिन
जो ग़म मुझको आज मिला है
किसी दुकां पर रखने के काबिल ही नहीं हैं
पहली बार में शर्मिन्दा हूँ
ये ग़म बेच नहीं पाऊंगा


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I hope you like this Nazm, If you like the Nazms of Javed Akhtar then please comment your valuable feedback in comment section.


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